ढपोर शंख की ललित कथा :: विकुति
एक दुखी प्राणी ने बहुत काल तक तपस्या की। पहले वह पत्ते खा कर रहा, फिर जल पी कर रहा और अंत में वायु पीकर ही तपस्या करने लगा। भगवान इस तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उस महात्मा रूपी प्राणी को दर्शन दिया। भगवान को साक्षात पाकर वह महात्मा अत्यंत प्रश्न हुआ और नाना विधि भगवान का पूजन अर्चन एवं सत्कार किया। फिर भगवान ने कहा “अब तो सब हो गया मैं चलूं”। महात्मा को धक्का लगा, सोचा असली बात तो रह ही गई, उसने सकुचाते हुए विनय पूर्वक कहा “भगवान सब तो हो गया, कुछ प्रसाद भी हो जाए”।
भगवान बोले मुझे पता था तू लालची है इस लिए में यह दो शंख लेकर आया हूँ पहला शंख ऐसा है कि इससे तू जो भी मांगेगा देगा, दूसरा शंख प्रसिद्ध ढपोर शंख है इससे तू जो भी मांगेगा उसका दुगना देगा, बोल कौनसा शंख चाहिए?
महात्मा ने कहा “ दूसरा भगवान्”।
भगवान ने कहा मुझे मालूम था तू यही शंख लेगा चल ले।
महात्मा शंख लेकर घर पहुंचा। शंख को पवित्र वेदी पर रख कर फूल अक्षत जल चढ़ा कर महात्मा ने कहा “मुझे 1 लाख रुपए दो”।
शंख बोला “दो लाख लो”।
महात्मा बोला “ एक ही लाख दो”।
शंख बोला “दो लाख लो”।
अच्छा महात्मा बोला “ दो लाख ही दो”।
शंख बोला “चार लाख लो”।
“महात्मा ने कहा दो”।
“शंख ने कहा लो”।
महात्मा बोला “देते क्यों नहीं”।
शंख - लेते क्यों नहीं।
महात्मा - दोगे तब तो लूंगा।
शंख - लोगे तब तो दूंगा।
महात्मा - अच्छा दो।
शंख - अच्छा लो।
महात्मा चतुर था इतने पर ही बात समझ गया। ऊपर देखकर बोला भगवान अब तू देख तेरे मजाक से क्या गुल खिला रहा हूं। महात्मा ढपोर शंख लेकर निकल पड़ा देश देश घूमते हुए एक दिन वह एक सुंदर राज्य में पहुंच गया जहां विद्वान लोग रहते थे। यहां के समस्त छात्र “ऑटोमेटिक विद्यालयों और विश्व विद्यालयों में पढ़े हुए थे सब के पास मोबाइल और मोटरसाइकिल (दहेज में प्राप्त ) उपलब्ध थे। यह सब छात्र धर्म की पुनर्स्थापना में लगे हुए थे। इनमें से प्रतिभाशाली छात्र अनवरत ट्रोल में निमग्न थे। यह समस्त नौजवान साहसी ऐसे थे की अनायास ही किसी विधर्मी कोपीट पीट कर मार डालते थे। इनकी वीरता से प्रभावित सम्राट भी इनका फूल मालाओं सेस्वागत करते और बर्फी खिलाते थे।
इसी नगर में महात्मा ने अपना डेरा डाला और सबको आमंत्रित किया और ढपोर शंख की महिमा बताते हुए लोगों से इसके परीक्षण का आग्रह किया।
सर्वप्रथम एक नौजवान आया उसने शंख से कहा “हे शंख महाराज आप भी हिंदू में भी हिंदू एक नौकरी दे दीजिए”।
शंख - दो लेलो।
“हे महाराज में दो नौकरी क्या करूंगा”।
शंख - एक तुम करना एक अपनी बीवी को दे देना।
युवक - महाराज अभी तो शादी ही नहीं हुई।
शंख - जाओ शादी करके आना।
युवक प्रसन्नता पूर्वक घर चला गया।
इसके बाद एक सेठ आए उन्होंने दस लाख रुपए मांगे ।
शंख बोला - 20 लाख लेलो।
सेठ ने कहा - महाराज 20 लेकर क्या करूंगा। 10 की जरूरत है।
शंख - अरे 10 तो मेरी प्रॉसेसिंग फीस ही हैं।
सेठ ने कहा - अच्छा महाराज दे दीजिए।
शंख - प्रॉसेसिंग फीस एडवांस होती हैं चलो लेकर आओ।
सेठ को पैसे तो नहीं मिले लेकिन था वह घुटा हुआ व्यापारी उसने सोचा पैसा तो हाथ की मैल है, लेकिन महात्मा पहुंचा हुआ है, आगे बहुत काम आएगा। वह चट हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और विनय पूर्वक बोला- महात्मा जी आप तो ईश्वर के अवतार है क्या सेवा करु? महात्मा ने कहा वत्स सेवा और भक्ति क्या पूछ पूछ कर की जाती है? सेठ ने गद गद होकर कहा - प्रभु फिर इस आश्रम व्यय भार मुझ अकिंचन को सौंप कर सेवक की कृतार्थ कीजिए। महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा - चल सौंप दिया। सेठ महात्मा के चरणों में लौट गया। महात्मा तो सेठ से थोड़ा बीस ही था वह भली भाती इस ड्रामे को समझ गया सेठ के कान के पास मुंह ले जाकर कर कहा “अब यह बता तुझे क्या चाहिए। सेठ ने हंसते हुए कहा “प्रभु अभी आप क्या दे सकते है? पहले कायदे से धंधा तो जमा लीजिए तब मैं मांग लूंगा। आप को देश का नंबरी संत बनना है और मेरी लालसा है कि में दुनिया का नंबरी सेठ बनू। हम लोगों का सहकार यदि बना रहा तो ये उद्देश्य अवश्य पूरे होंगे।
सेठ के ये वचन सुनकर गद गद महात्मा ने उसे गले से लगा लिया और कह “अरे तू तो अंतरयामी निकला सेठ”। सेठ ने सकुचाते हुए कहा “ यह तो बस आप का आशीर्वाद है”। इस आलिंगन और संवाद के पश्चात दोनों विलश उठे।
पाठकों महात्मा और सेठ का उद्देश्य पूरा हो चुका है किंतु उनका सहकार पूर्ववत जारी है। इस गठबंधन का अंत क्या होगा, कौन जानता है ?
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