सर्वाइवल आफ शेमलेस
सन 1513 में निकोलो मैक्यावेली नामक एक इतालवी राजनयिक और विचारक ने "द प्रिंस" नामक एक पुस्तक लिखी, जो राजनीतिक रणनीतियों और सत्ता प्राप्ति के लिए निर्मम उपायों को संहिताबद्ध करती है। इस पुस्तक के पाठकों में चार्ल्स पंचम, लुइस XVI, स्टालिन, बिस्मार्क, चर्चिल, मुसोलिनी और हिटलर जैसे अनेक शासक शामिल रहे हैं। इसकी एक प्रति नेपोलियन की पराजय के बाद भी प्राप्त हुई थी। इस पुस्तक का मूल भाव यह था कि सत्ता प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए व्यक्ति को नैतिकताओं और सिद्धांतों से परे जाकर व्यवहार करना होगा। साध्य ही साधन को उचित ठहराता है और यदि कोई अपने स्वार्थ की रक्षा नहीं करता, तो अन्य लोग उसे कुचलकर आगे बढ़ जाएंगे। अगर आप सत्ता चाहते हैं तो आपको इसे हथियाना होगा I इसके लिए आपका सिद्धांतों या नैतिकताओं से मुक्त होना अनिवार्य हैI मनुष्य मात्र के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह एहसान फरामोश, ढुलमुल ,ढोंगी ,पाखंडी , कायर और लालची होते हैं I अगर कोई आदमी तुम्हारा भला करता है तो भुलावे में मत रहना यह दिखावा है, क्योंकि बिना स्वार्थ के कोई किसी का भला नहीं करताI इस पुस्तक के सत्व का साया डगर फादर हाउस का कार्ड, गेम का थ्रोंस, आदि आज के कथानको पर भी देखा जा सकता हैI
मैक्यावली के “द प्रिंस” के फलसफे पर आधारित कई सेल्फ हेल्प पुस्तक भी उपलब्ध हैं I द प्रिंस के विचारों की व्यापकता और प्रभाव को देखते हुए यह जानना जरूरी होगा कि इस पर आधुनिक विज्ञान क्या कहता है प्रोफेसर देसर कैटरीना में क्या वाली के सिद्धांतों के प्रयोग पक्ष के अग्रणी विशेषज्ञ हैं उन्होंने विषय पर कई प्रयोग किए हैं उनका पहला प्रयोग हॉस्टलों के सेंड कक्षा ग्रीष्मकालीन शिविरों एवं अन्य जगहों पर जहां वर्चस्व की होड़ रहती है में किया गया इस प्रयोग में मैं कियावेली के सिद्धांतों की पुष्टि नहीं हो पाई यह परिणाम प्रोफेसर कैटरीना की आशा के विपरीत और उन्हें निराश करने वाले थेI उन्होंने अपने प्रयोग जारी रखें और इन प्रयोगों का विषय किंचित परिवर्तित किया अब प्रश्न यह था, कि सत्ता प्राप्त होने के बाद इसका क्या प्रभाव होता है ? इसमें एक कुकी मिनिस्टर परीक्षण नमक प्रयोग भी था I जिसमें कुकीज़ को मिल बाटकर खाने की अपेक्षा की गई थी I इसमें या सिद्ध हुआ कि ग्रुप के नेता द्वारा प्रत्येक मामले में अतिरिक्त कुकी खा ली गई किंतु इस प्रयोग को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गयाI
हाल के वर्षों में ऐसे अनेक अध्ययन प्रकाशित हुए हैं जिसमें एक महत्वपूर्ण परीक्षण है जिसे आमतौर पर महंगी कर का ड्राइवर पर प्रभाव कहा जा सकता है I इस प्रयोग में प्रथम तक ऐसे लोगों को ज़ेबरा क्रॉसिंग की ओर भेजा गया जिस दिन के पास जर्जर गाड़ियां थी और जेब्रा क्रॉसिंग कोई व्यक्ति भी इस समय पर कर रहा था प्रयोग में सारे ड्राइवर में नियमन अनुसार गाड़ियां रोक दी थी I फिर प्रयोग के दूसरे भाग में शामिल लोगों को भड़कीली मर्सिडीज़ दी गई इस पर यह पाया गया कि केवल 45% गाड़ियां ही ज़ेबरा क्रॉसिंग पर रुकी इस पूरे प्रयोग में यह पाया गया कि कार जितनी महंगी होती गई यातायात संबंधी आचरण उतने ही अशिष्ट होते गए I बीएमडब्ल्यू के ड्राइवर सबसे अपशिष्ट पाए गए I यह अध्ययन अब तक दो बार दोहराया जा चुका है और परिणाम एक जैसे ही आए हैं I सत्ता में मौजूद लोग “एक्वायर्ड सीसियोपेथी” नामक बीमारी और सामाजिक व्यक्तित्व विकार से ग्रस्त व्यक्त की तरह आचरण करते हैं I आम नागरिक के विपरीत यह ज्यादा उतावले आत्म केंद्रित लापरवाह अहंकारी और एसिस्ट होते हैं I इनमें अपने जीवनसाथी के प्रति धोखा देने की प्रवृत्ति भी अधिक होने की संभावना रहती है I वह दूसरे लोगों पर कम ध्यान देते हैं I दूसरे के दृष्टिकोण में कम दिलचस्पी रखते हैं तथा यह बहुत बेशर्म भी होते हैं I
मनोवैज्ञानिकों की राय है की सत्ता सुन्न कर देने वाली एक औषधि की तरह कार्य करती है जो आपको दूसरों के प्रति असम्बद्ध और असंवेदनशील बना देती है I उनमें दूसरे मनुष्यों से जुड़े होने का एहसास ही नहीं रहता मानो उन्हें जोड़ने वाला प्लग निकाल लिया गया हो I अनेक अध्ययनों से यह पता चलता है की सत्ता का यह प्रभाव होता है कि वह अन्य मनुष्य के प्रति अविश्वासी हो जाता है I शक्तिशाली व्यक्ति सोचता है कि लोग आलसी हैं भरोसे के काबिल नहीं है I उनका निरीक्षण करते रहना उन पर निगाह रखना उनका नियमन और परिचालक करना उनका मुंह बंद रखना सत्ता की जिम्मेदारी है I
पावर प्राइमिंग एक्सपेरिमेंट (Power Priming Experiment) को स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डेचर केल्टनर (Dacher Keltner) और उनके सहयोगियों ने किया था। उन्होंने प्रयोग में पाया कि जब लोगों को सत्ता का अनुभव कराया गया, तो उनके निर्णय नैतिकता से दूर जाने लगे और वे दूसरों की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील होते गए। प्रयोग की प्रक्रिया: प्रतिभागियों को दो समूहों में विभाजित किया गया। एक समूह को 'सशक्त' अनुभव कराया गया, यानी उन्हें यह अहसास कराया गया कि वे निर्णय लेने के अधिकार रखते हैं। दूसरे समूह को सामान्य परिस्थिति में रखा गया। इसके बाद दोनों समूहों से नैतिक और अनैतिक निर्णय लेने के लिए कहा गया। परिणाम: सत्ता की भावना से भरपूर समूह ने नैतिकता को अनदेखा करते हुए अपने हित में निर्णय लिए। उन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ को दूसरों की आवश्यकताओं से ऊपर रखा। इन प्रतिभागियों ने अधिक आत्मकेंद्रित व्यवहार किया और दूसरों की समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हो गए। यह अध्ययन "The Power Paradox" नामक शोधपत्र में प्रकाशित किया गया, जिसमें बताया गया कि सत्ता व्यक्ति के मस्तिष्क के व्यवहार को बदल देती है, जिससे वह अधिक स्वार्थी और नैतिकता से विमुख हो जाता है।
सत्ता और नैतिक पतन पर अन्य प्रयोग इसके अलावा, कई अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों में भी यही सिद्ध किया गया है कि सत्ता व्यक्ति को अनैतिक और दूसरों के प्रति असंवेदनशील बना देती है: माइकल इनस्लीग (Michael Inzlicht) और सोजन हिगिंस (Sujan Higgins) का प्रयोग दिखाता है कि जब किसी व्यक्ति को सत्ता प्राप्त होती है, तो वह दूसरों के दर्द और तकलीफ को महसूस करने की क्षमता खोने लगता है। एडम गैलिंस्की (Adam Galinsky) के अध्ययन में यह सिद्ध किया गया कि सत्ता व्यक्ति को नैतिक रूप से 'अंधा' बना देती है और उसे यह भी नहीं पता चलता कि वह गलत कर रहा है।
अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसंधान यह भी साबित करते हैं कि सत्ता से वंचित व्यक्ति समाज आत्मविश्वास से वंचित होते हैं और खुद ही अपनी जुबान बंद रखते हैं I क्यूंकि लोग मूर्ख और सोच विचार करने में असमर्थ हैं इसलिए यह जिम्मेदारी सत्ता के पास होने होनी चाहिए I ऐसा सत्ताधारी लोग मानते हैं I किंतु स्थिति ठीक इसके विपरीत है सत्ता विहीन व्यक्ति का यह स्वभाव भी सत्ताधारियों के कृत्यों से बनता है I जैसे ही कोई व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर पहुंचता है वह आम लोगों को दूर दृष्टि से वंचित कर देता है क्योंकि जिस व्यक्ति को आप विवेक हैं या सुविधाजनक मानते हैं उसे आसानी से उपेक्षित किया जा सकता है ,दंडित किया जा सकता है ,जेल में बंद किया जा सकता है या कुछ और बुरा किया जा सकता है I सत्ताधारी को अपने अपने कृत्य को साबित करने की आवश्यकता भी नहीं होती है I यहां यह विचारणीय है कि हमारे सत्ताधारियों का व्यवहार इस प्रकार अमानवीय क्यों होता है ? सत्ता अधिकारियों के मानवीय गुणों का हरण कर लेती है या उनमें या गुण होते ही नहीं है I श्रेणीबद्ध रूप से संगठित समाज में मैक्यवाली विचार वाले लोग एक कदम आगे होते हैं क्योंकि उनके पास अपने प्रतिद्वंद्वी को ध्वस्त करने का एक गुप्त हथियार होता है और वह हथियार है बेशर्मी I दुर्भाग्य से समाज में ऐसे लोगों की संख्या बड़ी तादाद में होती है और वह किसी प्रकार सत्ता प्राप्त कर लेते हैं या वह मुट्ठी भर मुट्ठी भर लोगों में से होते हैं जो जन्मजात सोशियो पैथोलॉजिकल लक्षणों से युक्त होते हैं I
हमारे आधुनिक लोकतंत्र में बेशर्मी लाभदायक होती जा रही है I हमारे राजनेता ऐसे कृत्य कर डालते हैं जो करने का बहुत साहस कोई भी सामान्य व्यक्ति नहीं कर पाता I वह लगातार झूठ बोल सकते हैं और इस पर कोई प्रश्न हो तो इसका प्रतिकार झूठ से ही कर सकते हैं I ऐसे व्यवहार का संज्ञान मीडिया भी तत्काल लेता है क्योंकि ऐसे असामान्य एवं विद्रूप व्यवहार की पठनीयताअधिक होती है और सत्ता द्वारा देश के लिए उपकृत भी किया जाता है I
रुत्खेर ब्रेख्मान ने अपनी पुस्तक “ humankind “के अपने सत्ता संबंधी अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं “इस तरह की दुनिया के वे नेता शिखर तक नहीं पहुंचते जो सबसे ज्यादा स्नेहिल और सबसे ज्यादा हमदर्द होते हैं बल्कि वह पहुंचते हैं जो इसके विपरीत होते हैं I”
इस दुनिया का मंत्र है जो बेशर्म होता है वही जीवित बचा रहता है “सर्वाइवल आफ शेमलेस “
(क्या आपको अपने आस-पास कुछ ऐसा महसूस हो रहा है ?)
सन्दर्भ : Humankind: A Hopeful History by Rutger Bregman
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