जेल से छूटे कैदी का विकास दर्शन :: विकुति
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रिहाई का कागज लेकर मैं तेज कदमों से फाटक पर पहुंचा। वहां पर खड़े सिपाही को मैंने सलाम किया। सिपाही एक बाल बच्चेदार नरम दिल इंसान था। बोला “रिहाई हो गई , बेटा घर जाओ ,ठीक से रहना”। “जी हाकीम” मैंने कहा। छोटा वाला फाटक खोलते -खोलते, उसने कहा “कभी-कभी आते रहना, पुराने लोगों से मिलकर अच्छा लगता है ,और कभी कोई गलती सही हो गई हो तो माफ करना ,यह तो नौकरी है नरम-गरम करना ही पड़ता है”। मैं बहुत लज्जित हुआ ,सोचा सिपाही जी कितने भले आदमी है, मैं इनको पहचान ही नहीं पाया । मैं धीरे से बाहर निकला और एक बार फिर उनको सलाम कर मुड़ गया ।
फाटक पर मिलाई करने वालों की भीड़ थी । लेकिन मुझे कोई लेने नहीं आया था। फिर मैंने सोचा अरे!फूल माला लेकर लेने तो लोग, लिंचरो को आते हैं, दंगाइयों को आते हैं ,झूठे मामले में फंसा दिए गए बाहुबलियों को आते हैं ,और कभी-कभी पार्टी के नेताओं को भी आते हैं और मैं तो इनमें से कोई भी नहीं हूं। मैंने तुरंत इस विचार को झटक दिया।
इसके बाद मैं घर पहुंचने की योजना बनाने लगा। लगभग दो-तीन घटे की बस यात्रा तो तय है। अभी दुविधा यह थी कि बस स्टेशन तक कैसे पहुंचा जाए। बस स्टेशन ज्यादा दूर नहीं है तीन-चार किलोमीटर ही है। वहां तक ऑटो वाले ले जाते हैं लेकिन वे पैसा लेते हैं। अगर पैदल चला जाए तो पैसे बच जाएंगे और कोई जल्दी तो है नहीं। जेल से निकले परिवार के भविष्य का कौन परिवरीजन इंतजार कर रहा होगा? इस दुविधा में आर्थिक पक्ष अपनी बढ़त बनाए हुए था ,क्योंकि पैसे जरूरत से भी थोड़े कम ही थे। मैंने इस विवाद को काव्यात्मक टच दिया ।इतने दिनों तक दीवारों के पीछे बंद रहने के बाद अब खुली हवा में सांस लेना आनंददाई होगा , और मैं पैदल चल पड़ा।
चलते चलते मन में तरह-तरह के विचार आने लगे थे। मैं सोच रहा था कि मैं क्यों बंद था? पूरी कैद के दौरान भी मैं इसको सोचता रहा लेकिन समझ नहीं पाया ,और इतने दिन बंद रहा। फिर मैं मैने अपने आप को सांत्वना दी। यदि उमर, से भी कोई पूछे कि वह क्यों बंद है ?,तो वह क्या उत्तर देगा? यही तो कहेगा कि उसे नहीं मालूम कि वह क्यों बंद है। फिर लोग कहेंगे मान लो यह सरकार पागल या , अन्यायी है जो की सरकारे होती भी है ,तो क्या जज साहबान भी ऐसे ही थे? वे लोग तुम्हें छोड़ देते। अब इस प्रश्न का क्या उत्तर होगा? जो उत्तर होगा वह तो बड़ा संगीन होगा। यही सब सोचते- सोचते मैं अब वहां पहुंच गया था ,जहां सड़क हर तरफ से खुदी हुई थी ,और धूल उड़ रही थी ।सवारी के सारे साधन इधर-उधर से कट -कट कर निकल रहे थे। मैंने एक अपने जैसे राहगीर से पूछा “यह सब क्या हो रहा है”? उसने मेरे अज्ञान पर तरस खाते हुए बड़ी बेरुखी से कहा “विकास हो रहा है और क्या हो रहा है”? खैर मैं तो पैदल था ,धीरे-धीरे चलते हुए इसे पार कर लिया।
अब बस्ती और बाजार शुरू हो गया था। दोनों तरफ दुकाने थी। धूप अभी बहुत तेज नहीं थी ,इसलिए खरीद बिक्री जारी थी। मुझे अब भूख लगने लगी थी। पैसों की किल्लत ध्यान में आई, लेकिन तुरंत ही ज्ञान की ज्योति जली,अरे !टेंपो के जो पैसे बचाएं है इससे तो कुछ खाया ही जा सकता है , यह सोचकर मन गदगद हो गया। जहां चाह वहां राह। थोड़ा ही आगे चलने पर एक हलवाई की दुकान दिखाई पड़ गई। दुकान में अंदर शीशे में बहुत सी मिठाइयां थी ,लेकिन बाहर कड़ाही पर जलेबियां भी सजी हुई थी। मैने जलेबी को चुन लिया ,सस्ती की सस्ती और खाने में मजेदार । मैंने लाला से, 100 ग्राम जलेबी मांगी। उसने तौल कर एक अखबार के टुकड़े पर दे दिया। वहां दो चिकट बेंचें थी जिन पर अभी केवल मक्खियों बैठी थी। मैंने बेंच पर हाथ रखा तो , मक्खियों उड़ गई ,लेकिन बेंच हिल रही थी। मैं असमंजस में था। मुझे खड़ा देखकर लाला ने दहाड़ कर कहा ,”बेफिक्र बैठ जाओ एकदम लोहा-लाट है।” मैं बैठकर जलेबी खाने लगा। जलेबी खत्म होते-होते ख्याल में आया ,क्यों न थोड़ी अय्याशी और कर ली जाए, और मैंने एक गिलास चाय भी मांग लिया। चाय पीते हुए मेरे अंदर जिज्ञासा कुल -बुला रही थी । अंत में मैंन हिम्मत बटोर कर पूछ ही लिया ,सेठ जी “वह आगे क्या बन रहा है। ?बड़ी खुदाई हो रही है।” इधर नए आए हो क्या, भैया !नीचे सीवर लाइन पड़ रही है और ऊपर फ्लाइ ओवर बन रहा है, बस फ्लाइ ओवर, पर चढ़ जाओ और सीधे जाकर जेल के फाटक पर उतरो ,बड़ी सुविधा हो जाएगी।
अब धूप तेज लगने लगी थी लेकिन मैं चलते-चलते बस अड्डे पर पहुंच गया । वहां खड़ी ज्यादातर बसें वैसी ही थी जैसी आम तौर पर बस होती हैं ,लेकिन कुछ बड़ी शानदार बसें भी थी ,पहले , ऐसी बसें कम ही दिखाई देती थी। मेरी वाली बस पहले वाली बसों की तरह थी। काम भर सवारिया आ गई तो बस चल पड़ी। उंघते -उंघते मैं अपने चौराहे पर पहुंच गया। बस से उतरने पर मुझे अपना बस अड्डा पहचान में ही नहीं आ रहा था। बस अड्डे पर तमाम तरह की खाने-पीने की दुकाने खुली हुई थी । कुल मिलाकर बस अड्डा पूरी तरह से गुलजार था । खाने पीने की दुकानों पर लगभग वही चीज मिल रही थी जो अमेरिका में मिलती है। कुछ पुराने किस्म की दुकानों पर समोसा पकौड़ी चाय आदि भी उपलब्ध थी ,किंतु ये दुकाने, लगभग खस्ता हाल थी ,क्योंकि ज्यादा भीड़ तो चाऊमीन और बर्गर वाली दुकानों पर थी। चौराहे पर कई प्रकार के शीतल पेय भी उपलब्ध थे। मैं बस अड्डे से पैदल गांव की ओर जाने की तैयारी कर रहा था ,कि पता चला कि मेरे गांव तक अब टेंपो जाने लगा है। मैं एक टेंपो में बैठ गया जिसमें 6 सवारियां बैठी थी लेकिन अभी तीन सवारी की कमी थी ,जिसके लिए टेंपो वाला आवाज दे रहा था। टेंपो स्टैंड पर एकाध साइकिल सवार भी दिखे जो ज्यादातर ग्रामीण बुजुर्ग थे । सारे नौजवान मोटरसाइकिलों से आते जाते दिखाई पड़े। उन सबके हाथों में मोबाइल थे ,जिन पर वे लगातार दुनिया के संपर्क में थे। बहुत जरूरी होने पर ही वे कान से मोबाइल हटाते थे। यदि एक साथ तीन युवक जा रहे थे ,तो तीनों अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त थे ।दुकानदार भी कान में मोबाइल लगाए हुए ही ,बीच-बीच में ग्राहकों से बात कर पा रहे थे। अजीब व्यस्तता का आलम था। कहीं-कहीं मोबाइल पर गाने भी चल रहे थे। एक जगह तीन लड़के बैठे हुए एक बड़े से मोबाइल में ध्यान मग्न कुछ देख रहे थे। टेंपो में मेरे बगल में बैठे हुए दो लड़के भी लगातार बात किए जा रहे थे । उनको टेंपो के चलने की कोई जल्दी नहीं थी ,उनकी समस्या यह थी कि नेटवर्क ठीक से सिग्नल नहीं पकड़ रहा था। इसी समय एक बस आई और उसमें से एक बुजुर्ग दंपत्ति एक लड़के के साथ जो उनका या नाती या पोता रहा होगा उतरे और आकर , टेंपो में बैठ गए।
तभी एक लड़का बाजार से मोबाइल पर बात करने करते हुए आया और किसी तरह से एक तरफ घुसकर लगभग लटक सा गया। टेंपो को भरा देखकर ड्राइवर आया ,और उसने एक सीट के नीचे से एक बोतल तेल निकाला ,और इसको बड़ी अदा से टेंपो में उडे़ल दिया। यह एक पुराना टेंपो या ऑटो था जो शहर में काफी दिन सेवा कर चुका था ,और अब इस ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन का विकास कर रहा था। टेंपो के लगभग 100 मी आगे बढ़ने के बाद ड्राइवर ने एक भोजपुरी गीत लगा दिया। गाने की आवाज में टेंपो का गर्जन दब गया ,लेकिन टेंपो के अंदर की जिंदगी जीवंत हो उठी। कुछ किलोमीटर आगे जाने के बाद एक सिपाही ने टेंपो को हाथ दिया । बगल में ही थाना था। टेंपो रुक गया चालक बड़े बेमन,से उतरा और उसने सिपाही को सलाम किया । सिपाही ने बड़ी बेरुखी से कहा” बिहारी, यह दूसरा चक्कर है फिर भी दाबे चले जा रहे हो।” चालक बोला” हाकीम ! गियर फंस रहा था ,बनवाने में डेढ़ सौ लग गए लौटानी, मैं हिसाब हो जाएगा ,अभी तो जाने दीजिए। सिपाही हंसा “साले !तुम हमेशा बहाना बाजी करते रहते हो ,और सरकार को चूना लगाते रहते हो, हमको तो पैसेंजरों को भी देखना पड़ता है ,लेकिन बेटा लौटानी में हिसाब नहीं हुआ तो छोड़ूंगा नहीं ,हमें भी तो कहीं जवाब देना पड़ता है ,चलो बढ़ो” चालक ने नमस्कार किया और सिपाही की मां बहन करता हुआ आकर अपनी सीट पर बैठ गया। गालियाँ सिपाही को जरूर ही सुनाई पड़ी होगी ,लेकिन पेशे का तकाजा उसने इसका बुरा नहीं माना। इंजन स्टार्ट करते-करते चालक ने सवारियों को सुना कर कहा “जमाना ही ऐसा है सब लोग गरीब को ही लूटने में लगा है ,अभी तो मालिक का भी दो दिन का बकाया है ,नंगा क्या नहाए क्या निचोडे़?
टेंपो करीब आधा घंटा चलकर उजियार चौराहे पर आ गया यह एक पुरानी बाजार है। अभी वे पुरानी दुकाने जिन पर चाय नमकीन बिकती थी, आज भी मौजूद हैं, किराने और कपड़े की दुकान भी है लेकिन कई नई दुकानै भी खुल गई थी जिनमे चमक ज्यादा थी, । ऐसी ही एक दुकान थी प्रेम सराफ की “स्वर्ण मंजूषा “। दुकान में बैठी हुई औरतें सोने चांदी का मोल -भाव कर रही थी। इन औरतों के चेहरे से लालसा ,लालच और लोभ , टपक रहा था। यह ऐसी मछलियां थी जो स्वयं आकर जाल में फंस गई थी। प्रेम जाल खींच रहा था और यह विमुग्ध खिंची चली जा रही थी। बगल में एक ब्यूटी पार्लर भी खुल गया था जिसमें शीशे का दरवाजा लगा था, जिस पर परदेदारी के लिहाज से फूलदार मोटा पर्दा लगा दिया गया था।
कई और दुकाने, ठेले पर भी थीं ,जिन में चाऊमीन ,बर्गर आदि बिक रहे थे, । यहीं पर ठेले के नीचे एक काठ के डिब्बे में, बर्फ रखकर कोल्ड ड्रिंक भी बिक रही थी। पान की गुमटिया भी मौजूद थी ,किंतु वहां पान नदारत था ,इसकी जगह गुटके के चमकदार पैकेट सजे हुए थे। इसके साथ ही नमकीन और चिप्स के रंगीन आकर्षक पैकेट भी लटके हुए थे जिनका उपयोग सामने नई नई खुली” महा ठंडी, बियर ‘की दुकान पर हो रहा था। एक मिस्त्री ने भी अपना एक खोखा लगा लिया था जो चीकट चिथड़ों और तेल ग्रीस के कारण काला, दिखाई दे रहा था। मिस्त्री एक बाइक के साथ उलझा हुआ था और ग्राहक युवक
एक, स्टूल पर बैठा हुआ तन्मयता से, मिस्त्री की कारस्तानी देख रहा था । एक और छोटी और सुंदर सी दुकान खुली हुई थी जिस पर लिखा था “राज इलेक्ट्रिकल्स और इलेक्ट्रॉनिक–, यहां बिजली का हर सामान मिलता है तथा उसकी मरम्मत भी की जाती है।” इसी दुकान पर मोबाइल की, मरम्मत भी होती थी और उनका रिचार्ज भी किया जाता था ,इसलिए इस दुकान पर काफी भीड़ थी।” ठेका देसी शराब,” वाली दुकान आज भी थी, और, मजे की गुलजार भी थी । इस स्टैंड पर तीन सवारियां उतरी लेकिन चार सवारियां आ भी गई इसलिए टेंपो तुरंत ही चल पड़ा। अब अगला स्टैंड ही मेरे गांव का स्टैंड था। इस स्टैंड पर टेंपो लगभग खाली हो गया और मैं उतर पड़ा। गांव में घुसने से पहले एक शिवजी का मंदिर पड़ता था जो बहुत सुरम्य था। यह एक छोटा मंदिर था लेकिन काफी पेड़ पौधों के कारण बड़ा रमणीक लगता था मैं भी यहां जब -तब, आकर शांति से बैठा करता था। किंतु आज मैंने देखा की मंदिर का पूरा कायाकल्प हो चुका था। मंदिर के चारों एक विशाल प्रांगण बन गया था ,जिसमें बड़ा हाल था ,लंबे-लंबे गलियारे थे और फर्श पर सुंदर रंगीन टाइल्स लगी हुई थी। हाल में बैठे हुए कुछ बुजुर्ग और कुछ बेरोजगार कीर्तन कर रहे थे । कीर्तन की ध्वनि लाउडस्पीकर से दूर-दूर तक गूंज रही थी । बाहर , चबूतरे पर बैठे कुछ छात्र और बेरोजगार जिनमें से काफी पहचाने हुए भी थे ,ने मुझे बताया यह संकीर्तन 18 महीने के लिए संकल्पित है ,जिसके पूरा होने पर एक महायज्ञ और भंडारा होगा। उनमें से एक ने कहा “भैया अब तो आप खाली ही हो एकाध घंटे यहां भी समय दीजिएगा ,और यज्ञ के समय जरूर रहिएगा’। मैंने कहा “हां क्यों नहीं “। एक दूसरे ने कहा भैया जब से कीर्तन शुरू हुआ है ,पूरी हवा ही बदल गई है ,पूरा गांव राम मय हो गया है, आप भी भैया इस पुण्य अवसर का लाभ उठाइए। पूरा गांव बड़े उत्साह में है सब लोग इसमें योगदान कर रहे हैं।
मंदिर से निकलकर मैं गांव में घुसा यहां ज्यादातर घर पक्के बन गए थे ,लेकिन इनमें से अधिकांश पर प्लास्टर नहीं हुआ था तथा फर्श तो ज्यादातर कच्चे थे ही। गांव में चलते हुए कोई मवेशी नहीं दिखाई पड़ रहे थे। एकाध, घरों के सामने गाय तो दिखाई पड़ी, किंतु कोई बैल नहीं दिखा। आहिस्ता आहिस्ता गांव का तिलिस्म मेरे सामने खुल रहा था। वह छोटी नदी जिससे मुझे बहुत लगाव था ,एक गंदे नाले में तब्दील हो गई थी। नदी पूरी तरह से जलकुंभी और दूसरे ऐसे ही पौधों से ढकी हुई थी। किनारे पर प्लास्टिक और दूसरे कचरे के कारण सांस लेना दूभर था। नदी का पानी काला हो गया था। जिस नदी का पानी हर काम में इस्तेमाल होता था ,अब वह पैर धोने के लायक भी नहीं था। पता नहीं मछलियां कहां चली गई थी। किनारे के बड़े-बड़े पेड़ गायब थे और नदी का किनारा एक तिरस्कृत परीतक्तय स्थान होकर रह गया था।
गांव की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गई थी। उत्पादन लागत अधिक होने के कारण बहुत लोग खेती छोड़ चुके थे। अत्यधिक रासायनिक खादों के प्रयोग से जमीन उसर हो चली थी। खेती में फिर से लगभग जमींदारी की एक नई किस्म का उदय हो रहा था । गांव के ज्यादातर किसानों की जोत बहुत छोटी थी । कम उत्पादन वाली इन जमीनों पर लागत लगाने की औकात इनके मालिको मे नहीं रह गई थी इसलिए वे अपनी जमीनों को काश्त करने के, लिए बटाइ या लगान पर देने लगे थे। खेती के काम में मुख्य रूप से दलित और पिछड़े वर्ग के लोग थे ,क्योंकि इनमें से अधिकांश के पास कोई जमीन ही नहीं थी । इसलिए कोई विकल्प भी नहीं था।
गांव में आने पर मैंने देखा कि घर-घर मोटरसाइकिल और बहुत लोगों के पास ट्रैक्टर हैं । मेरा अनुमान यह था कि आधुनिकीकरण के फल स्वरुप गांव में पर्याप्त समृद्धि आ गई है ,लेकिन इसकी छेपक कथा अलग थी ,गांव की अधिकांश, मोटरसाइकिल गांव के इंटर पास सपूतों को दहेज में उनकी ससुराल से प्राप्त हुई थी । जिन में अब तेल भरना मुश्किल हो रहा था , कहीं आने जाने के लिए हर बार गेहूं बेचने की आवश्यकता पड़ती थी। वैसे यह सभी अपनी ससुराल वालों की जानकारी में कंप्यूटर की पढ़ाई कर रहे थे। इसी प्रकार गांव के सभी ट्रैक्टर कर्ज पर लिए गए थे जिसको चुका न पाने की स्थिति में अधिकांश की कुर्की हो चुकी थी तथा जो अभी भी बचे हुए थे उनकी कुर्की होने वाली थी। इसके विपरीत इस बीच गांव में एक नया धनाट्य वर्ग का उदय हुआ था जिसके पास अथाह पैसा था, इसमें मुख्य रूप से ठेकेदार थे जो सरकारी योजनाओं में ठेके लेते थे ,या रियल स्टेट के धंधे में थे। छोटे-मोटे व्यापारी या दुकानदार आमतौर से सुखी थे। गांव के सुखी लोगों में वह अनिवासी ग्रामीण भी थे जो शहरों में सरकारी नौकरी में थे। अनिवासी ग्राम वासियों का एक वर्ग और भी था जो पर्याप्त सुखी और भव्यजीवन यापन कर रहा था । ये वे परिश्रमी और प्रतिभाशाली नौजवान थे जो अपने उद्यम से आईटी क्षेत्र में घुस गए थे और अच्छी कमाई कर रहे थे। यह नौजवान भले अमेरिका ,न मानता हो ,लेकिन यह मन से अमेरिकी ही थे। यह लोग मुख्य रूप से दिल्ली ,बेंगलुरु गुड़गांव ,नोएडा तथा खास अमेरिका में भी बसे हुए थे । इन लोगों ने गांव तो छोड़ दिया था लेकिन सभी ढोंग अपने साथ लेकर गए थे।
गांव में बचे हुए नौजवानों के शिक्षा और रोजगार का क्या कहना इंटर तक तो परीक्षा नकल के भरोसे निकल ही जाती थी, आगे का भगवान ही मालिक था। कुछ के माता-पिता ने
खेत आदि बेचकर इंजीनियरिंग आदि मैं इनका ऐडमिशन कर दिया था लेकिन नकल की लचर व्यवस्था के कारण ये जल्दी ही गांव लौट आए थे ,इन समस्त नौजवानों का अधिकांश समय मोबाइल और आईपीएल , आदि के साथ कट रहा था ।बचे हुए समय में ये अपने मां-बाप को इसलिए गाली देते थे कि वह घूस देकर उनको किसी सरकारी विभाग में लगता नहीं पा रहे हैं। इसके बाद भी समय बच जाने पर यह नौजवान प्यार अदि भी कर लेते थे और समय कट जाता था लेकिन लाख टैटू गुदवाने, शाही जैसे बाल बनवाने और कान में बाली आदि पहनने के बाद भी कोई लड़की इनके साथ भागने को तैयार नहीं होती थी ।
नौजवानों का एक और भी छोटा वर्ग था जो रोज के खर्च पानी को लेकर अपने दूसरे साथियों की अपेक्षा मजे में था ,यह नौजवान किसी विधायक, सांसद या किसी उदीय मान् नेता के साथ रहते थे ,और प्राय उनके काफिले में एसयूवी में यात्रा करते थे ।इनका दिल्ली लखनऊ आना-जाना लगा ही रहता था। गांव में भी इनकी इज्जत होती थी।
यही सब देखते सोचते मैं घर पहुंच गया। दरवाजा खुला था, मैं सीधा अंदर चला गया। सबसे पहले मुझे अपनी बहन दिखाई पड़ी ,जब गया था बहुत छोटी थी, वह चिल्लाते हुए दौड़कर कमरे में गई और उधर से मां के पीछे चिपके हुए आई। बेतरह बिखरी हुई मां चुपचाप मेरे पास, आकर खड़ी हो गई। बहन दौड़कर फिर गई ,और एक लोटा पानी लाकर रख दिया। भरी हुई मां किसी तरह अपने को रोकने का प्रयास कर रही थी। उसने चिल्ला कर कहा “मीठा लेकर आ ऐसे ही पानी दिया जाता है” लेकिन यह युगत काम नहीं आई और उन्होंने आंचल से अपना मुंह ढक लिया। पिता चारपाई पर बैठे थे ,वह उठे और अपना गमछा जोर से फटकार कर कंधे पर रखते हुए कहा “खा-पीकर आराम कर लो थके होगे ।” यह कहकर वे बाहर चले गए।
मां आंचल से अपना मुंह पोंछते हुए मेरे एकदम पास आई और उसने सीसकते हुए कहा “बाबू क्या बना दूं। “मैंने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा “बनाना क्या है ?जो बना है वही खाऊंगा।”
इति
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