मारीच की सम्पूर्ण कथा ::विकुति

 

 

मारीच उपत्यका में चर रहा था । पीछे से आकर रावण ने उसकी पीठ पर हाथ रखा। चौंककर मारीच मुनि के रूप में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । रावण को देखकर बोला “राजन आपने क्यों कष्ट किया मुझे बुला लिया होता।” हंसते हुए रावण बोला “नाटक मत कर एक गुप्त प्रयोजन है इसीलिए मैं आया हूँ ।” यह कह कर रावण ने उसके कान के पास मुँह ले जाकर देर तक मंत्रणा की । रावण की बात सुनकर मारीच थर-थर कांपते हुए विनयपूर्वक बोला “इसमें तो जान का खतरा है ।” अट्टहास करते हुए रावण बोला “खतरा तो वत्स वैसे भी है! कहो क्या कहते हो ?” मारीच मान गया ।

इसके बाद की कथा सभी सुधी पाठक जानते हैं । दौड़ते-दौड़ते प्रभु श्रीराम ने स्वर्ण मृग रूपी मारीच को पकड़ लिया और धनुष तानकर खड़े हो गए। मारीच फिर मुनि के रूप में आ गया और हाथ जोड़कर बोला “प्रभु! आप संपूर्ण जगत के पालक ही नहीं समस्त कलाओं के संरक्षक भी हैं । अगर आपके हाथ से मैं मर जाऊ तो ये हम मेरा परम सौभाग्य होगा लेकिन मेरी कला भी मेरे साथ विदा हो जाएगी और संसार इस कपट विद्या से शून्य हो जाएगा । आगे आपकी मर्जी ! आप मालिक हैं ।” मारीच के ये वचन सुनकर भगवान रुक गए और उन्होंने धनुष से बाण उतार लिया और कुछ सोचने लगे। प्रभु बोले “मारीच ! तू मारीचिका है मैं भी मारूंगा तो तू मरेगा नहीं लेकिन लोगों को यही लगेगा कि तू मर गया है । जा ऐश कर मैं चलता हूँ।” मारीच बोला “ प्रभु ज़रा लंबे पांव से जाइयेगा माता का अपहरण हो चुका है “ प्रभु दौड़ते हुए निकल गए”

मारीच कभी मरते नहीं, वह बस युगों के साथ अपना रूप बदलते हैं । त्रेता में वह छलिया मृग था, कलियुग में वह सत्ता का स्वर्णिम मृग बन गया। मारीच का पुनर्जन्म हो चुका है, और इस बार उसने अपनी पुरानी गलतियों से सीख ली है। पहले वह स्वर्ण मृग बनकर जंगलों में छल करता था, अब वह भाषणों में, बजट घोषणाओं में, जनसभाओं में और डिजिटल इंडिया के वादों में प्रकट होता है। पहले राम के बाण का डर था, अब बाण का बजट कट चुका है और बाण निर्माता कंपनी को भी विनिवेश करके बेच दिया गया है। मारीच राम को अपनी उंगली पकड़कर यहाँ-वहां कही भी घुमा देता है, जहां उसे ज़रूरत हो—कभी चुनावी रैली में, कभी मंदिर की मुंडेर पर, कभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, और कभी वीडियो कॉल पर हाथ हिलाने में। सोने की खाल छोड़कर उसने , विकास, आत्मनिर्भरता, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की सुनहरी चमड़ी ओढ़ ली है। पहले वह रावण के लिए काम करता था, अब उसे उसकी कोई ज़रूरत नहीं । पहले वह वन में दौड़ता था, अब चुनावी मंचों पर। तब वह सीता को लुभाने आया था, अब पूरे राष्ट्र को। लक्ष्मण रेखा तब भी थी, आज भी है—तब उसे छल से लांघा गया था, आज उसे ‘रणनीति’ कहकर मिटाया जाता है।

पहले लक्ष्मण सीता को समझाते थे कि स्वर्ण मृग के पीछे मत भागो, यह छलावा है। अब लक्ष्मण को निर्वासित हैं, और सीता स्वयं स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए ओला-ऊबर बुक कर रही हैं। हर पांच साल में एक नया स्वर्ण मृग देखती है, पहले थोड़ा हिचकती है, फिर उसकी चमक-दमक देखकर मोहित हो जाती है और उसके पीछे दौड़ पड़ती है।

मारीच ने छल की परिभाषा बदल दी है। पहले वह एक ठग था, अब वह एक विचारधारा है। पहले उसका खेल रामायण में खत्म हो गया था, अब उसका खेल हर चुनाव में शुरू होता है। पहले वह डरता था कि राम उसे मार डालेंगे, अब वह खुद पंचांग देखकर तय करता है कि राम को कब कौन सा काम करना है। पहले वह रावण के कहने पर छल करता था, अब वह  स्वयं चुनाव जीतकर छल करने आ जाता है। पहले राम को धोखा देना पड़ता था, अब राम से ‘प्रसाद’ दिलवा दिया जाता है।

रामायण के दिनों में मारीच जंगलों में छिपकर अपनी चालें चलता था। अब वह टीवी की बहसों में, चुनावी मंचों पर, सरकारी विज्ञापनों में और आत्मनिर्भर भारत की नीतियों में खुलकर खेल खेल रहा है। वह अब केवल छल का किरदार नहीं रहा, बल्कि छल की परिभाषा बन चुका है। पहले उसे रावण की जरूरत होती थी, अब वह खुद रावण भी है, खुद मारीच भी है और खुद ही जनता का उद्धारक भी। पहले वह राम के बाण से डरता था, अब वह राम को अपनी उंगली पकड़कर वहां बैठा देता है, जहां उसे ज़रूरत होती है—कभी मंच पर, कभी मंदिर में, कभी हवाई जहाज में, कभी रथ पर, कभी टीवी स्क्रीन पर और कभी सोशल मीडिया की ट्रेंडिंग लिस्ट में।

 

रामायण में लक्ष्मण सीता को रोकते थे कि स्वर्ण मृग के पीछे मत भागो, यह छलावा है। लेकिन अब लक्ष्मण कोई नहीं है—सब सीता हैं, सब दौड़ रहे हैं। जनता हर चुनाव में नए स्वर्ण मृग देखती है और उसके पीछे भागती है। पहले वह अच्छे दिनों के पीछे भागी, फिर नए भारत के पीछे, फिर आत्मनिर्भर भारत के पीछे, फिर अमृतकाल के पीछे। हर बार छल नया रूप धरकर आता है, हर बार जनता मोहित होती है और हर बार चुनाव के बाद पछताने का समय ही नहीं बचता, क्योंकि नया स्वर्ण मृग सामने आ जाता है।

रामायण में छल का अंत हुआ था, लेकिन आधुनिक समय में छल एक नई शुरुआत है। पहले जनता मारीच को पहचान लेती थी, अब जनता मारीच की सदस्यता ले लेती है। पहले मारीच छल करता था, अब जनता गर्व से कहती है—“देखिए, कैसा शानदार छल हुआ है! विश्वगुरु स्तर का छल!” राम के बाण का डर नहीं बचा, बल्कि राम के नाम पर ही छल करने वालों की कतार लग गई है। और इस बार, राम भी चुप हैं, क्योंकि उनकी ज़रूरत केवल उद्घाटनों, भाषणों और पोस्टरों में रह गई है। मारीच को अब किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अब कोई उसे मारेगा नहीं, बल्कि उसका छल उसे और मजबूत करेगा !

मारीच की सबसे बड़ी सफलता यही है कि अब कोई उसे छलावा नहीं कहता। पहले छल करना अपराध था, अब छल करना राजनीति की सबसे बड़ी उपलब्धि है। पहले मारीच पकड़ा जाता था, मारा जाता था। अब मारीच सत्ता में आता है, जयकारे लगते हैं, और वह अगले पांच साल तक फिर नया स्वर्ण मृग तैयार करने में लग जाता है। पहले स्वर्ण मृग एक छल था, अब छल ही लोकतंत्र है। पहले जनता भ्रमित होती थी, अब भ्रम ही जनता को चलाता है। रामायण में छल का अंत हुआ था, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में छल हर पांच साल में नया जन्म लेता है। मारीच जीत रहा है, जनता भाग रही है… और राम? राम वहीं बैठे हैं, जहां मारीच ने उन्हें बिठाया है।

 

 

 

 

Comments

  1. शानदार विश्लेषण! आपकी लेखन शैली बेहद प्रभावशाली है. आपने मारीच के चरित्र को इतनी गहराई से समझा है और उसे आधुनिक संदर्भ में इतनी खूबसूरती से पेश किया है। आपकी लेखन शैली में व्यंग्य और हास्य का बहुत अच्छा समन्वय है।
    आपके लेख से यह बात साफ हो जाती है कि आप सिर्फ एक कहानी नहीं सुना रहे हैं, बल्कि एक विचार प्रकट कर रहे हैं। आपने हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि आज के समय में भी मारीच जैसे लोग कितने प्रासंगिक हैं।

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